बेज़ार फिर न होंगे कभी ज़िंदगी से हम हो लें तिरे क़रीब जो ख़ुश-क़िस्मती से हम ऐ काश हम भी होते कभी इतने ख़ुश-नसीब ग़म बाँटते किसी का तो हँसते किसी से हम तुम ने बुला लिया तो चले आए बज़्म में कब चाहते थे क़ुर्ब-ए-हरीफाँ ख़ुशी से हम अंजाम-ए-तूर आज भी अपनी नज़र में है ग़श खा न जाएँ आप की जल्वागरी से हम जी चाहता है राज़-ए-दिल-ए-गुल तो कुछ खुले बुलबुल की बात पूछ लें जा कर कली से हम नाज़-ओ-नियाज़ इशवा-ओ-ग़म्माज़ियाँ न सीख ऐ हुस्न कह रहे हैं दिल-ए-आशिक़ी से हम 'शादाँ' की है सदा की पलट आए इंक़लाब आजिज़ नहीं हैं आज भी फ़र्मांं-दही से हम