बे-जुर्म-ओ-बेगुनाह ग़रीब-उल-वतन किया हम को वतन से शाह ग़रीब-उल-वतन किया ग़ुर्बत की शाम उल्फ़त-ए-गेसू में देखिए उस दिल ने हम को आह ग़रीब-उल-वतन क्या उस पर न पड़ती आँख न छुटता कभी वतन बस तू ने ऐ निगाह ग़रीब-उल-वतन किया दुश्मन न यूँ हो दोस्त ने जिस तरह से हमें बा-हालत-ए-तबाह ग़रीब-उल-वतन किया ऐ 'मेहर' हम को चर्ख़ ने गर्दिश से रोज़-ओ-शब मानिंद-ए-मेहर-ओ-माह ग़रीब-उल-वतन किया