बेकल है मुख निगाह में बोसों की प्यास है कुछ तो बता तू किस से बिछड़ कर उदास है तस्वीर में झुका है नदी पर कदम का पेड़ पानी में पैरता हुआ बुत बे-लिबास है तेरी क़सम कि तुझ को बना कर मता-ए-ज़ीस्त अब कोई आरज़ू है न अब कोई आस है खुलती है रोज़ शाम को इक चम्पई धनक गाँव के उस मकाँ पे जो दरिया के पास है कमरे की शेल्फ़ पर है सजी बुध की मूर्ती गुल-दान में चुनी हुई जंगल की घास है देखूँ तुझे तो रूह का सहरा सुलग उठे चाहूँ तुझे तो तेरी लगन में मिठास है जूड़े की क़ौस में गुँधे कुछ मालती के फूल साड़ी की सिलवटों में लवंडर की बास है