बेकसी-ए-शब-ए-हिज्राँ की मुझे ताब नहीं काश दुश्मन ही चले आएँ जो अहबाब नहीं तुझ को ऐ बख़्त-ए-सियह आग लगा कर देखूँ शब-ए-हिज्राँ में अगर जल्वा-ए-महताब नहीं देख बुत-ख़ाने में तस्वीर का आलम ऐ शैख़ याँ मुसल्ला नहीं मिम्बर नहीं मेहराब नहीं नामा-बर मुझ से ये कहता है कि तुम तो क्या हो बादशह भी तो वहाँ क़ाबिल-ए-अलक़ाब नहीं न मिले मुझ को मिरे हाल पे रोने वाले ऐश कैसा कि यहाँ ग़म के भी अस्बाब नहीं हाल-ए-दिल जिस से कहा उस ने कहा बस ख़ामोश 'दाग़' इस दर्द के सुनने की हमें ताब नहीं