बे-सबब चाक पर धरे थे हम बनते बनते भी क्या बने थे हम ज़ब्त-ए-ग़म हार ही गया आख़िर उस को देखा तो रो पड़े थे हम तुझ को काँटे कहाँ से लग जाते आगे आगे जो चल रहे थे हम हादिसा किस तरफ़ को ले आया घर से क्या सोच कर चले थे हम सच बता ख़ालिक़-ए-जहान-ए-ख़राब इस तमाशे को ही बने थे हम हो गई शाम तब मिली दुनिया सारा दिन ढूँडे फिरे थे हम