बे-सुतूँ इक आसमाँ को देखते रहते हैं हम इक ख़ला-ए-बे-कराँ को देखते रहते हैं हम क्या बशर का हाल हो जाता है उन के दरमियाँ इस ज़मीन-ओ-आसमाँ को देखते रहते हैं हम रहबरों की भीड़ में कुछ राहज़न भी हैं शरीक अब तो मीर-ए-कारवाँ को देखते रहते हैं हम है ख़ता किस की सज़ा मिलती है किस को देखिए अब जलाल-ए-हुक्मराँ को देखते रहते हैं हम ठीक करने की तो कोशिश की मगर अंजाम-ए-कार अपने इस बिगड़े जहाँ को देखते रहते हैं हम हर घड़ी पेश-ए-नज़र रहती है 'फ़रहत' मस्लहत हर घड़ी सूद-ओ-ज़ियाँ को देखते रहते हैं हम