'बेताब' हमारा ज़ौक़-ए-नज़र गर उन के मुक़ाबिल आ जाए वो पर्दा-नशीं हों महमिल में तो सामने महमिल आ जाए मैं राह-ए-तलब में सरगर्दां इस आस पे याँ तक पहुँचा हूँ इस गाम पे मंज़िल आ जाए उस गाम पे मंज़िल आ जाए ऐ कातिब-ए-क़िस्मत ये तो बता क्या ये ही है तक़दीर मिरी इक मुश्किल से छुटकारा हो तो दूसरी मुश्किल आ जाए यूँ प्यार भरी नज़रों से मुझे देखो न ख़ुदारा बाज़ आओ इल्ज़ाम न देना फिर मुझ को गर तुम पे मिरा दिल आ जाए 'बेताब' ये कोई जीना है हम जैसे ग़म के मारों का हर लम्हा यही इक ख़तरा रहे कब जाने क़ातिल आ जाए