बे-ताबी-ए-ग़म-हा-ए-दरूँ कम नहीं होगी ये आग तो अब तुम से भी मद्धम नहीं होगी दामन को ज़िया-ए-रुख़-ए-महताब से भर ले अब बारिश-ए-अनवार है पैहम नहीं होगी तू ही दिल-ए-बेताब जो सो जाए तो सो जाए ये चाँदनी इस रात तो मद्धम नहीं होगी मैं उन के लिए ग़ैर हूँ वो मेरे लिए ग़ैर अच्छा है कि अब रंजिश-ए-बाहम नहीं होगी हम सब को सुना कर ही रहेंगे ग़म-ए-हस्ती आवाज़ किसी शोर में मुदग़म नहीं होगी अब क़ाफ़िला-ए-ज़ीस्त ही रुक जाए तो रुक जाए ये दर्द की लज़्ज़त तो कभी कम नहीं होगी