बे-वजह तहफ़्फ़ुज़ की ज़रूरत भी नहीं है ऐसी मिरे अंदर कोई औरत भी नहीं है हाँ उन को भुला डालेंगे इक उम्र पड़ी है इस काम में ऐसी कोई उजलत भी नहीं है किस मुँह से गिला ऐसी निगाहों से कि जिन में पहचान की अब कोई अलामत भी नहीं है उन को भी मुझे शेर सुनाने का हुआ हुक्म कुछ शेर से जिन को कोई निस्बत भी नहीं है मेरे भी तो माज़ी की बहुत सी हैं किताबें पर उन को पलटने की तो फ़ुर्सत भी नहीं है कुछ तुम से गिला और कुछ अपने से कि मुझ को हर हाल में ख़ुश रहने की आदत भी नहीं है मैं दफ़न रहूँ अब यूँही रेशम के कफ़न में अब इस के सिवा और तो सूरत भी नहीं है