बे-यक़ीनी का हर इक सम्त असर जागता है ऐसी वहशत है कि दीवार में दर जागता है शाम को खुलते हैं दर और किसी दुनिया के रात को फ़िक्र का बे-अंत सफ़र जागता है जिस को चाहें ये उसे अपना बना सकती हैं तेरी आँखों के समुंदर में हुनर जागता है हो न जाए कहीं मिस्मार ये इस बारिश में घर की बुनियाद में ख़ामोश खंडर जागता है इक नया हौसला देती है शिकस्ता-पाई पाँव ज़ख़्मी हों तो फिर अज़्म-ए-सफ़र जागता है तुझ को दरकार है इक नींद की गोली 'नासिर' जिस्म सोता है तिरा ज़ेहन मगर जागता है