भँवर से नाव के पलड़े बचाने पड़ते हैं मुझे ये लोग किनारे लगाने पड़ते हैं सो इतना सहल मोहब्बत को ले न शहज़ादी गुदाज़ पोरों से काँटे उठाने पड़ते हैं कभी जो हाल को चेहरे से भाँप लेता था अब उस को रंज भी रो कर बताने पड़ते हैं हमारी शाख़ों तक आती है जब ख़िज़ाँ की शुनीद हम ऐसे पेड़ों को पत्ते गिराने पड़ते हैं तपिश भी धूप की लगने न दी हो जिन को कभी वो प्यारे मिट्टी में इक दिन दबाने पड़ते हैं वो शख़्स मेरी 'हसन' एक भी नहीं सुनता मैं क्या करूँ मुझे आँसू बहाने पड़ते हैं