भीतर बसने वाला ख़ुद बाहर की सैर करे मौला ख़ैर करे इक मूरत को चाहे फिर का'बे को दैर करे मौला ख़ैर करे इश्क़-विश्क़ ये चाहत-वाहत मन का भुलावा फिर मन भी अपना क्या यार ये कैसा रिश्ता जो अपनों को ग़ैर करे मौला ख़ैर करे रेत का तूदा आँधी की फ़ौजों पर तीर चलाए टहनी पेड़ चबाए छोटी मछली दरिया में घड़ियाल से बैर करे मौला ख़ैर करे सोच कि काफ़िर हर मूरत पे जान छिड़कता है बिन पाँव थिरकता है मन का मुसलमाँ अब क़िबले की जानिब पैर करे मौला ख़ैर करे फ़िक्र की चाक पे माटी की तू शक्ल बदलता है या ख़ुद ही ढलता है 'बेकल' बे-पर लफ़्ज़ों की तख़्ईल को तैर करे मौला ख़ैर करे