बिछ्ड़ें तो शहर भर में किसी को पता न हो तुम को भी कुछ मलाल हमें भी गिला न हो मज्लिस कि ख़्वाब-गाह जहाँ भी नज़र मिली उन को यही था ख़ौफ़ कोई देखता न हो जिन हादसों की आग से दामान-ए-दिल जला मुमकिन नहीं चराग़-ए-सुख़न भी जला न हो मेरी ग़ज़ल में जैसा तरन्नुम है सोज़ है अक्सर हुआ गुमाँ कि उसी की सदा न हो उन से अलग हुआ तो यही फ़िक्र है 'नईम' उन का तपाक-ओ-मेहर कहीं वाक़िआ' न हो