बिगड़ा जो वक़्त ज़ीनत-ए-बाज़ार हो गए नीलाम कैसे कैसे ख़रीदार हो गए मैं फूल था तो पैरों तले रौंदते थे लोग पत्थर हुआ तो मेरे परस्तार हो गए दीवारें उठ रही हैं मिरे घर के सहन में लगता है मेरे बेटे समझदार हो गए शायद तिरे जहाँ में शराफ़त गुनाह है मैं मोम क्या हुआ सभी तलवार हो गए उँगली थमा के जिन को चलाया था पाँव पाँव चलने लगे तो राह की दीवार हो गए ज़र पास हो तो जब जिसे चाहो ख़रीद लो हम सब मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार हो गए 'आरिफ़' से हक़-परस्त भी सब जाँ के ख़ौफ़ से उन क़ातिलों के हाशिया-बरदार हो गए