बिजली सी जिधर चमक रही है

बिजली सी जिधर चमक रही है
हर आँख उधर ही तक रही है

चल उन की गली में ज़िंदगी चल
बेकार यहाँ भटक रही है

महसूस ये हो रहा है धरती
रफ़्ता रफ़्ता सरक रही है

क्या हादिसा हो गया है कोई
क्यों ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ठिठक रही है

इस शहर में जिस तरफ़ भी देखो
नफ़रत की चिता दहक रही है

बजते हैं कहीं पे शादियाने
तन्हाई कहीं सिसक रही है

मैं तुझ को खटक रहा हूँ या फिर
मेरी शोहरत खटक रही है

चिड़िया तो चली गई चहक कर
अब याद तिरी चहक रही है

आँखों में ख़्वाब जागते हैं
खेतों में फ़स्ल पक रही है

ख़ामोश हैं सब चराग़ ऐ 'नूर'
बे-कार हवा सनक रही है


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