बिखरे तो फिर बहम मिरे अज्ज़ा नहीं हुए सरज़द अगरचे मो'जिज़े क्या क्या नहीं हुए जो रास्ते में खेत न सैराब कर सके क्यूँ जज़्ब दश्त ही में वो दरिया नहीं हुए इंसान है तो पाँव में लग़्ज़िश ज़रूर है जुर्म-ए-शिकस्त-ए-जाम भी बेजा नहीं हुए हम ज़िंदगी की जंग में हारे ज़रूर हैं लेकिन किसी महाज़ से पसपा नहीं हुए इंसाँ हैं अब तो मुद्दतों हम देवता रहे शक्लें नहीं बनीं जो हयूला नहीं हुए ठहरो अभी ये खेल मुकम्मल नहीं हुआ जी भर के हम तुम्हारा तमाशा नहीं हुए हर सर से आसमान की छत उठ नहीं गई कब तजरबे में शहर ये सहरा नहीं हुए 'शौकत' दयार-ए-शौक़ की रौनक़ उन्ही से है जो अपनी ज़ात में कभी तन्हा नहीं हुए