बिखरा के हम ग़ुबार सा वहम-ओ-ख़याल पर पत्तों की तरह डोलते फिरते हैं माल पर अपने ही पाँव बस में नहीं और यार लोग तन्क़ीद कर रहे हैं सितारों की चाल पर ये माल आँचलों का सुबुकसार आबशार सद-मौज-ए-रंग-ओ-नूर है लम्हों की फ़ाल पर बहते हुजूम शाम के लम्हों का सैल हम रक़्साँ हैं ज़ेहन झूमते क़दमों के ताल पर उलझे हुए हैं बहस में वारफ़्तगान-ए-शाम है गुफ़्तुगू अदब के उरूज-ओ-ज़वाल पर तय राह-गुज़ार-ए-पा है न मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू व्हिस्की के धुँदलके हैं जवाब-ओ-सवाल पर 'ग़ालिब' का ज़िक्र था अभी 'शेली' पर आ गए पहुँचे 'मलारमे' से जलाल-ओ-जमाल पर झोंकों के साथ साथ कोई ताएर-ए-ख़याल आ बैठता है ज़ेहन की शादाब डाल पर गर्द-ए-सफ़र से प्यार है मंज़िल का ग़म नहीं यूँ चल रहे हैं रहगुज़र-ए-माह-ओ-साल पर छाए हुए हैं सोच के साए कहीं कहीं छिटकी हुई है चाँदनी बाम-ए-ख़याल पर हर साया अपनी अपनी गुफा में लुढ़क गया हम लोग घूमते रहे सुनसान माल पर