बिना-ए-अर्ज़-ओ-फ़लक हर्फ़-ए-इब्तिदा हूँ मैं बिखर गया तो समझ लो कि इंतिहा हूँ मैं यूँही सुलगते रहो आग की क़बा हूँ मैं तुम्हें बचाउंगा क्या ख़ुद सुलग रहा हूँ मैं उठाए फिरता हूँ बे-शख़्सियत बदन अपना और अपने गुम-शुदा चेहरे को ढूँढता हूँ मैं ये कोहर कोहर से चेहरे धुआँ धुआँ आवाज़ तुम्हारे शहर में शायद अभी नया हूँ मैं लहू लहू सी खंडर की तमाम ईंटें हैं कहाँ से निकलूँ कि इक आह-ए-ना-रसा हूँ मैं नई है मश्क़ न जाने कहाँ पे गिर जाऊँ नफ़स की डोर पे कर्तब दिखा रहा हूँ मैं 'कमाल' झूट है यारो फ़क़त फ़रेब है वो 'कमाल' सच को अभी तक तलाशता हूँ मैं