बिसात-ए-दानिश-ओ-हर्फ़-ओ-हुनर कहाँ खोलें ये सोचते हैं लब-ए-मो'तबर कहाँ खोलें अजब हिसार हैं सब अपने गिर्द खींचे हुए वजूद की वही दीवार दर कहाँ खोलीं पड़ाव डालें कहाँ रास्ते में शाम हुई भँवर हैं सामने रख़्त-ए-सफ़र कहाँ खोलें यहाँ शुऊ'र के नाख़ुन तो हम भी रखते हैं मगर ये उक़्दा-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र कहाँ खोलें न इस के साथ हमारा भी मोल होने लगे हैं कश्मकश में कि मुश्त-ए-गुहर कहाँ खोलें हवा है तेज़ न इस के वरक़ उड़ा ले जाए सहीफ़ा-ए-नफ़स-ए-मुख़्तसर कहाँ खोलें बचाएँ आबरू जिस्मों की भीड़ में कैसे है खोलनी गिरह-ए-जाँ मगर कहाँ खोलें कोई 'फ़ज़ा' तो मिले हम को क़ाबिल-ए-परवाज़ अब इन हदों में भला बाल-ओ-पर कहाँ खोलें