बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी सो रहता है ब-अंदाज़-ए-चकीदन सर-निगूँ वो भी रहे उस शोख़ से आज़ुर्दा हम चंदे तकल्लुफ़ से तकल्लुफ़ बरतरफ़ था एक अंदाज़-ए-जुनूँ वो भी ख़याल-ए-मर्ग कब तस्कीं दिल-ए-आज़ुर्दा को बख़्शे मिरे दाम-ए-तमन्ना में है इक सैद-ए-ज़बूँ वो भी न करता काश नाला मुझ को क्या मालूम था हमदम कि होगा बाइस-ए-अफ़्ज़ाइश-ए-दर्द-ए-दरूँ वो भी न इतना बुर्रिश-ए-तेग़-ए-जफ़ा पर नाज़ फ़रमाओ मिरे दरिया-ए-बे-ताबी में है इक मौज-ए-ख़ूँ वो भी मय-ए-इशरत की ख़्वाहिश साक़ी-ए-गर्दूं से क्या कीजे लिए बैठा है इक दो चार जाम-ए-वाज़-गूँ वो भी मिरे दिल में है 'ग़ालिब' शौक़-ए-वस्ल ओ शिकवा-ए-हिज्राँ ख़ुदा वो दिन करे जो उस से मैं ये भी कहूँ वो भी मुझे मालूम है जो तू ने मेरे हक़ में सोचा है कहीं हो जाए जल्द ऐ गर्दिश-ए-गर्दून-ए-दूँ वो भी नज़र राहत पे मेरी कर न वा'दा शब के आने का कि मेरी ख़्वाब-बंदी के लिए होगा फ़ुसूँ वो भी