बिस्तर-ए-कर्ब पे जब नींद जलाई मैं ने तब किसी ख़्वाब की बुनियाद उठाई मैं ने ज़ख़्म ऐसे थे कि हर शख़्स के आगे रक्खे बात ऐसी थी कि ख़ुद से भी छुपाई मैं ने हुरमत-ए-ग़म के लिए ख़ुद को अज़िय्यत बख़्शी फिर उसी दर्द से तस्कीन भी पाई मैं ने मैं ने ज़ख़्मों को कुरेदा उन्हें ताज़ा रक्खा तब कहीं दश्त में की नग़्मा-सराई मैं ने अपनी खिड़की से यूँही ख़ुद को पुकारा कल शब और फिर ख़ुद को वो आवाज़ सुनाई मैं ने जाने वाले से रग-ए-जाँ का भी रिश्ता था 'समीर' ये समझने में बहुत देर लगाई मैं ने