बीते हुए लम्हों को सोचा तो बहुत रोया जब मैं तिरी बस्ती से गुज़रा तो बहुत रोया पत्थर जिसे कहते थे सब लोग ज़माने में कल रात न जाने क्यूँ रोया तो बहुत रोया बचपन का ज़माना भी क्या ख़ूब ज़माना था मिट्टी का खिलौना भी खोया तो बहुत रोया जो जंग के मैदाँ को इक खेल समझता था हारे हुए लश्कर को देखा तो बहुत रोया जो देख के हँसता था हम जैसे फ़क़ीरों को शोहरत की बुलंदी से उतरा तो बहुत रोया ठहरा था जहाँ आ कर इक क़ाफ़िला प्यासों का उस राह से जब गुज़रा दरिया तो बहुत रोया