बोझ बच्चों को उठाने की सज़ा मत देना और जीने की बुज़ुर्गों को दुआ मत देना गोशा-ए-दिल में दबी एक जो चिंगारी है ख़ुद भड़क जाएगी इक रोज़ हवा मत देना ख़ुद मिटा देंगे ये अल्फ़ाज़ सियाही अपनी बू-ए-तहरीर है काग़ज़ पे जला मत देना अरे फलदार दरख़्तों पे भी उन का हक़ है देख शाख़ों से परिंदों को उड़ा मत देना रात भर जाग के ता'मीर किया है ये महल लफ़्ज़-ए-इंकार से बुनियाद हिला मत देना इस ख़ता पर कहीं महशर में न रुस्वाई हो आज 'राशिद' को निगाहों से गिरा मत देना