बोझ ख़्वाबों का उन आँखों से बहुत ढोया था और फिर मैं भी नतीजे में लहू रोया था दुख में शिरकत का यक़ीं हो भी उसे तो कैसे दिल से रोया था मैं आँखों से नहीं रोया था देख कर फ़स्ल अँधेरों की ये हैरत कैसी तू ने खेतों में उजाला ही कहाँ बोया था गुम अगर सूई भी हो जाए तो दिल दुखता है और हम ने तो मोहब्बत में तुझे खोया था जीत इस बार भी कछवे की हुई हैरत है दौड़ में अब के तो ख़रगोश नहीं सोया था जिस्म नासूरों से सजना ही था तुम ने 'शादाब' पट्टियाँ धोई थीं ज़ख़्मों को कहाँ धोया था