बोलने का नहीं चुप रहने का मन चाहता है ऐसे हालात में तू लुत्फ़-ए-सुख़न चाहता है एक तो रूह भी काफ़ूर-सिफ़त है अपनी और अब जिस्म भी बे-दाग़ कफ़न चाहता है मैं वफ़ाओं का परस्तार हूँ लेकिन मुझ से मेरा महबूब ज़माने का चलन चाहता है तू इधर कैसे अरे चाँदनी सूरत वाले ये वो धंदा है जो आँखों में जलन चाहता है वस्ल के बाद भी पूरी नहीं होती ख़्वाहिश और कुछ है जो ये नादीदा बदन चाहता है सूने सूने से हैं लफ़्ज़ों के शिवाले 'काशिफ़' ऐसा लगता है कि इज़हार बदन चाहता है