ब-तर्ज़-ए-ख़्वाब सजानी पड़ी है आख़िर-कार नई ज़मीन बनानी पड़ी है आख़िर-कार तपिश ने जिस की मुझे कीमिया बनाना था मुझे वो आग बुझानी पड़ी है आख़िर-कार बहुत दिनों से ये मिट्टी पड़ी थी एक जगह हर एक सम्त उड़ानी पड़ी है आख़िर-कार जहाँ पे क़स्र बनाए गए थे काग़ज़ के वहाँ से राख उठानी पड़ी है आख़िर-कार वो पाँव भीगे हुए देखने की ख़्वाहिश में चमन में ओस बिछानी पड़ी है आख़िर-कार मिरे बदन की ज़िया बढ़ गई थी सूरज से लहू में रात मिलानी पड़ी है आख़िर-कार ज़मीं पे दाग़ बहुत पड़ गए थे ख़ून के दाग़ फ़लक को बर्फ़ गिरानी पड़ी है आख़िर-कार