बू-ए-गुल चाहते हैं रक़्स-ए-सबा चाहते हैं बंद कमरों के मकीं ताज़ा हवा चाहते हैं मुफ़्लिसी होश उड़ा देती है इंसानों के ये नशा कम हो तो दौलत का नशा चाहते हैं कब कहा हम ने किसी ज़ोहरा-जबीं की है तलाश जो हमें ढूँड सके उस का पता चाहते हैं ये भी मंज़ूर नहीं चाँद के बाशिंदों को हम घनी रात में मिट्टी का दिया चाहते हैं हम से नाराज़ हैं सूरज की शुआएँ तो रहें हम तो बस रौशनी-ए-ग़ार-ए-हिरा चाहते हैं सब को मिलता है ये अंदाज़-ए-फ़क़ीराना कहाँ हम परेशाँ हैं मगर सब का भला चाहते हैं जिन का सर देख के कासे का गुमाँ हो 'मासूम' वो भी इस दौर में दस्तार-ए-अना चाहते हैं