बुझा के मुझ में मुझे बे-कराँ बनाता है वो इक अमल जो शरर को धुआँ बनाता है न जाने कितनी अज़िय्यत से ख़ुद गुज़रता है ये ज़ख़्म तब कहीं जा कर निशाँ बनाता है मैं वो शजर भी कहाँ जो उलझ के सूरज से मुसाफ़िरों के लिए साएबाँ बनाता है तू आसमाँ से कोई बादलों की छत ले आ बरहना शाख़ पे क्या आशियाँ बनाता है अजब नसीब सदफ़ का कि उस के सीने में गुहर न होना उसे राएगाँ बनाता है फ़क़त मैं रंग ही भरने का काम करता हूँ ये नक़्श तो कोई दर्द-ए-निहाँ बनाता है न सोच 'शाद' शिकस्ता-परों के बारे में यही ख़याल-सफ़र को गिराँ बनाता है