बुझे बुझे से चराग़ों से सिलसिला पाया हुजूम-ए-यास में भटके तो रास्ता पाया किसी ख़याल में उभरा उमीद का चेहरा किसी उमीद में परतव ख़याल का पाया न जाने कितने घरोंदों को टूटते देखा किसी खंडर में तमन्ना का नक़्श-ए-पा पाया तमाम रात नया बुत तराशते गुज़री हुई जो सुब्ह तो उस बुत को टूटता पाया क़दम क़दम पे मिले यूँ तो क़हक़हे बिखरे दरून-ए-जिस्म कोई शख़्स चीख़ता पाया तिलिस्म टूट गया धुँद छट गई 'शाहिद' कहीं पे ठहर के सोचें कि हम ने क्या पाया