बुझी बुझी हुई आँखों में गोशवारा-ए-ख़्वाब सो हम उठाए हुए फिरते हैं ख़सारा-ए-ख़्वाब वो इक चराग़ मगर हम से दूर दूर जला हमीं ने जिस को बनाया था इस्तिआरा-ए-ख़्वाब चमक रही है इक आवाज़ मेरे हुजरे में कलाम करता है आँखों से इक सितारा-ए-ख़्वाब मैं अहल-ए-दुनिया से मसरूफ़-ए-जंग हो जाऊँ कि पिछली रात मिला है मुझे इशारा-ए-ख़्वाब अजब नहीं मिरी नींदें भी जल उठें इस बार दबा हुआ मिरे बिस्तर में है शरारा-ए-ख़्वाब