बुलंदियों से उतर कर कभी पुकार मुझे अज़ल से तेरे करम का है इंतिज़ार मुझे तिरे जमाल-ए-शफ़क़-रंग का ज़ुहूर हूँ मैं मिला है तेरी तमाज़त से ये वक़ार मुझे तवील उम्र से फ़िक्र-ओ-नज़र की क़ैद में हूँ निगाह-ए-वक़्त की सूली से अब उतार मुझे तिरी वफ़ा का भरम मेरी ज़ात से मंसूब मुख़ालिफ़ों की सफ़ों में न कर शुमार मुझे हक़ीक़तों को समझ मस्लहत-शनास न बन फ़सील-ए-जब्र से ख़ुद भी निकल उभार मुझे तिरी तलब की कड़ी धूप में भी हूँ लेकिन अता हो अब्र-ए-करम पेड़ साया-दार मुझे मैं तीरगी को अमानत तिरी समझता हूँ तू रौशनी है तो कोई किरन उतार मुझे