बुलंद-ओ-पस्त हक़ीक़त से आश्ना न हुआ वो दिल कि जिस में कोई हर्फ़-ए-मुद्दआ' न हुआ वो ज़िंदा दिल था मैं सहता रहा ग़म-ए-दुनिया उसी में जान दी लेकिन गुरेज़-पा न हुआ चला जो शब का मुसाफ़िर तो इस अदा से चला कि जब रुका तो दर-ए-सुब्ह रूनुमा न हुआ तुम्हीं बताओ कि इस दिल का क्या किया जाए जो चोट खा के भी चोटों से आश्ना न हुआ सितारे तोड़ लिए हम ने ज़ुहद-ओ-तक़्वा के मगर जो हक़्क़-ए-इबादत था वो अदा न हुआ चले चलो कि अभी सुब्ह की सियाही है सहर क़रीब है तारा कोई हुआ न हुआ 'कलीम' दर्द-ए-मोहब्बत समझ में क्यूँ आए वही तो दर्द है जो दर्द-ए-ला-दवा न हुआ