बुलंद-ओ-पस्त में मंज़िल हमें कहीं न मिली जो आसमान से नाज़िल हुए ज़मीं न मिली गिला नहीं कि तिरा संग-ए-आस्ताँ न मिला! ये है कि दीदा-ए-तर को वो आस्तीं न मिली कभी जो शाना-ए-उक़्दा-कुशा नसीब हुआ तो उस की ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर ओ अम्बरीं न मिली बजा कि जान-ए-ज़ुलेख़ा थे मिस्र में यूसुफ़ मगर जो बात थी कनआँ में वो कहीं न मिली मिले जो अर्श पे ख़ुल्द-ए-बरीं तो क्या हासिल? कि इस ज़मीं पे हमें जन्नत-ए-ज़मीं न मिली 'रईस' दाद ख़ुदावंद-ए-आफ़रीनश को! अगर मिली तो ब-जुज़ हर्फ़-ए-आफ़रीं न मिली