बुलबुल को ख़ार ख़ार-ए-दबिस्ताँ है इन दिनों हर तिफ़्ल की बग़ल में गुलिस्ताँ है इन दिनों ज़ुन्नार-ए-इश्क़ बुत में रग-ए-जाँ है इन दिनों नाक़ूस-ए-बरहमन दिल-ए-नालाँ है इन दिनों आबाद मेरा ख़ाना-ए-वीराँ है इन दिनों सैलाब मुझ ग़रीब का मेहमाँ है इन दिनों दामन है अपने हाथ में इक रश्क-ए-माह का पेश-ए-नज़र हिलाल-ए-गरेबाँ है इन दिनों बाग़-ए-जहाँ में जो है गिरफ़्तार है तिरा आज़ाद एक सर्व-ए-गुलिस्ताँ है इन दिनों कहते हैं हम ज़मीन में मजनूँ की अब ग़ज़ल हर बैत अपनी ख़ाना-ए-ज़िंदाँ है इन दिनों काफ़िर हो ऐ सनम जो ख़रीदे न तू उसे मेहंदी के मोल ख़ून-ए-मुसलमाँ है इन दिनों हंगामा हुस्न-ओ-इश्क़ का है गर्म आज-कल बहुत दीवाना-ए-परी है जो इंसाँ है इन दिनों मस्ती का उन लबों के फ़साना कहाँ नहीं मज्लिस नहीं वो जो नहीं हैराँ है इन दिनों सदक़े चकोर होते हैं रुख़्सार-ए-यार के वो माह-ए-चार-दह मह-ए-ताबाँ है इन दिनों आता है सैर-ए-बाग़ को वो गौहर-ए-मुराद फैलाए गुल के पास जो दामाँ है इन दिनों क़द सर्व चेहरा गुल है तो सुम्बुल हैं मू-ए-यार घर ख़ाना बाग़ है जो वो मेहमाँ है इन दिनों जौहर-शनास जम्अ हैं 'आतिश' है म'अरका शमशीर है वही कि जो उर्यां है इन दिनों