बुत अपने-आप को क्या जाने क्या समझते हैं मिरा ख़ुदा उन्हें समझे ख़ुदा समझते हैं अदा-शनास की अपने अदा समझते हैं कि बे-कहे वो मिरा मुद्दआ समझते हैं समझने वाले तुम्हारी अदा समझते हैं वो और कुछ है जिसे सब क़ज़ा समझते हैं फ़लक का नाम न ले कोई सामने उन के वो उस के ज़िक्र को अपना गिला समझते हैं मुझे ये आप के सर की क़सम न था मा'लूम कि आप भी रह-ओ-रस्म-ए-वफ़ा समझते हैं ये शोख़ियाँ भी हसीनों की क्या क़यामत हैं शब-ए-विसाल को रोज़-ए-जज़ा समझते हैं ये दिन शबाब के हैं कोई क्या कहे उन को अभी वो कुछ नहीं अच्छा बुरा समझते हैं तुम्हारे खोए हुओं का अजीब मस्लक है जो राहज़न भी मिले रहनुमा समझते हैं शब-ए-विसाल मिरे हम-नशीं से फ़रमाया यही तो हैं जो हमें बेवफ़ा समझते हैं ख़ुदा करे कहीं मौक़े से मुझ को मिल जाएँ यही हसीं जो मुझे पारसा समझते हैं हमें ये हक़ है तिरा मुँह भी चूमते जाएँ कि तेरे शिकवा-ए-बेजा बजा समझते हैं न मनअ' कर मय-ओ-माशूक़ से हमें वाइ'ज़ कि हम शबाब में सब कुछ रवा समझते हैं ख़ुदा की शान ये कोठों के बैठने वाले हमारी आह को अब ना-रसा समझते हैं 'रियाज़' इश्क़ में काफ़िर बुतों के है बे-ख़ुद मज़ा ये है वो उसे पारसा समझते हैं