बुतो कुछ हद भी है जौर-ओ-जफ़ा की है आख़िर इंतिहा हर इब्तिदा की जगह क्या हो इन आँखों में हया की भरी हो जिन में शोख़ी इंतिहा की शब-ए-ग़म आने में करती है ग़म्ज़े अदा भाती नहीं मुझ को क़ज़ा की मिरा दिल ले के अब मुझ पर ये ज़ुल्म आह दग़ा की तू ने ओ ज़ालिम दग़ा की मज़ा है मय-कशी का अब्र में आज फ़लक परछाई है रहमत ख़ुदा की बुतों की मेहरबानी क्या करम क्या इनायत चाहिए मुझ पर ख़ुदा की तुझे ओ बेवफ़ा चाहा हुई चूक तुझे दिल ने दिया मैं ने ख़ता की ये क्यों उड़ता है चेहरे का मिरे रंग हुई किस शोख़ को हाजत हिना की वो लेंगे जान भी वाँ ले के इक दिन ख़बर थी इब्तिदा में इंतिहा की चला दिल कूचा-ए-गेसू को जिस दम दुआ की पढ़ के दम रद्द-ए-बला की गए थे वो जहाँ हम ढूँढ लेते मदद मिलती जो उन के नक़्श-ए-पा की दिल-ए-मुज़्तर की कुछ हालत न पूछो तड़प बिजली में है आज इंतिहा की जब आते हैं चढ़ा जाते हैं दो फूल वो तुर्बत पर 'फहीम'-ए-मुब्तला की