बुतों से बच के चलने पर भी आफ़त आ ही जाती है ये काफ़िर वो क़यामत हैं तबीअ'त आ ही जाती है ये सब कहने की बातें हैं हम उन को छोड़ बैठें हैं जब आँखें चार होती हैं मुरव्वत आ ही जाती है वो अपनी शोख़ियों से कोई अब तक बाज़ आते हैं हमेशा कुछ न कुछ दिल में शरारत आ ही जाती है हमेशा अहद होते हैं नहीं मिलने के अब उन से वो जब आ कर लिपटते हैं मोहब्बत आ ही जाती है कहीं आराम से दो दिन फ़लक रहने नहीं देता हमेशा इक न इक सर पर मुसीबत आ ही जाती है मोहब्बत दिल में दुश्मन की भी अपना रंग लाती है वो कितने बे-मुरव्वत हों मुरव्वत आ ही जाती है 'ज़हीर'-ए-ख़स्ता-जाँ शब सो रहा कुछ खा के सुनते हैं तअ'ज्जुब क्या है इंसाँ को हमिय्यत आ ही जाती है