चढ़ा कर तीर नज़रों की कमाँ पर हसीनों के क़दम हैं आसमाँ पर हर इक लम्हा लगे वो आ रहे है यक़ीं बढ़ता ही जाता है गुमाँ पर कोई वा'दा वफ़ा हो जाए शायद भरोसा आज भी है जान-ए-जाँ पर उतरती ही नहीं बोसों की लज़्ज़त अभी तक स्वाद रक्खा है ज़बाँ पर किसी की रूह प्यासी रह न जाए लिहाज़ा ग़म बरसते है जहाँ पर अगर भटका तो उस को छोड़ देंगे नज़र रक्खे हुए हैं कारवाँ पर अमाँ हम भी किराए-दार ही हैं भले ही नाम लिक्खा है मकाँ पर