चाह थी मेहर थी मोहब्बत थी उस की हर बात ही क़यामत थी वस्ल था क़ुर्ब था क़राबत थी दिल को फिर भी अजीब वहशत थी अब तो हम सोच कर भी हँसते हैं अव्वल-ए-इश्क़ कैसी हालत थी मैं बहुत ख़ुश रहा हूँ उस के बग़ैर उस को इस बात पर भी हैरत थी बस उसे चूमते ही छोड़ दिया पत्थरों से मुझे तो वहशत थी मैं तो कुछ इन दिनों परेशाँ था उस को कब भूलने की आदत थी मैं ही उस वक़्त तुझ से बछड़ा था जब तिरी चाहतों में शिद्दत थी