चाहा बहुत मगर किसी उनवाँ न कर सके ईमाँ को कुफ़्र कुफ़्र को ईमाँ न कर सके अफ़्सोस कोई कार-ए-नुमायाँ न कर सके क़तरे को मौज मौज को तूफ़ाँ न कर सके मुमकिन नहीं कि हिम्मत-ए-मर्दां न कर सके वो काम कौन सा है जो इंसाँ न कर सके नामूस-ए-आशिक़ी का जुनूँ में भी था लिहाज़ हम चाक फ़स्ल-ए-गुल में गरेबाँ न कर सके तुम को कहें जो रश्क-ए-मसीहा तो किस तरह तुम भी तो मेरे दर्द का दरमाँ न कर सके ख़ुद्दारियों के साथ रहा एहतिराम-ए-हुस्न हम आशिक़ी को जज़्बा-ए-अर्ज़ां न कर सके कम-अस्ल छुप सका न शराफ़त के भेस में ज़र्रे को आफ़्ताब-ए-दरख़्शाँ न कर सके दिल पर असर पड़े न किसी इंक़लाब का वो कीजिए जो गर्दिश-ए-दौराँ न कर सके करते हैं लोग ज़िक्र-ए-मुसावात किस लिए जब दो तबीअतों को भी यकसाँ न कर सके रक्खे वो बुल-हवस न क़दम राह-ए-इश्क़ में जो ख़ुद को तेरे नाम पे क़ुर्बां न कर सके अंदेशा-ए-मआल था गोया वबाल-ए-जान 'तालिब' ब-क़द्र-ए-हौसला अरमाँ न कर सके