चाक-ए-दामाँ-ओ-गिरेबाँ पे हँसी आती है कैसे इंसाँ हो कि इंसाँ पे हँसी आती है तुम कि हर मंज़िल-ए-दुश्वार से हट जाते हो हम कि हर मंज़िल-ए-आसाँ पे हँसी आती है ये बनाए हुए रंग और ये तराशे हुए फूल मुझ को इस जश्न-ए-बहाराँ पे हँसी आती है रात इक ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ के लिए रोता हूँ सुब्ह हर ख़्वाब-ए-परेशाँ पे हँसी आती है हम को इक खेल हैं ये तौक़-ओ-सलासिल सय्याद हम को ज़िंदाँ में भी ज़िंदाँ पे हँसी आती है