चले आओ अगर दम भर को तुम तो ये जाता रहे फ़िल-फ़ौर मरज़ कि नहीं है ब-जुज़ बीमारी-ए-ग़म मिरी जान मुझे कोई और मरज़ नहीं कहता मैं तुम से कि चारा करो मगर आ के कभी कभी देख तो लो कि समझता नहीं है तबीब कोई है तुम्हारे ही क़ाबिल-ए-ग़ौर मरज़ मिरे ईसा-दम मिरे बे-परवा न इलाज से मेरे हाथ उठा नहीं बचने का ये मरीज़ तिरा कि है बढ़ता चला बे-तौर मरज़ नहीं इस का तअज्जुब यारो अगर मिरे दिल में दर्द हो रह रह कर करे ग़फ़लत ईसी-ए-दौराँ जब तू न बाँधे क्यूँ-कर दौर मरज़ तुझे 'अंजुम' दर्द-ए-फ़िराक़ भला क्यूँ चैन से उठने बैठने दे वो मसीह न जब कुछ रहम करे करे क्यूँ न जफ़ा-ओ-जौर मरज़