चले ही जाएगी क्या दर्द की कटारी भला रहेगी साथ कहाँ तक ये आह-ओ-ज़ारी भला जहाँ ख़ुलूस की अज़्मत समझ सके न कोई इस अंजुमन में हो क्या क़द्र-ए-जाँ-निसारी भला सही न जाएगी अब हम से ये फ़िराक़ की आग अकेले सुलगें कहाँ तक तिरे पुजारी भला नफ़स नफ़स में जो तहलील हो चुका वो ग़म छुपाए कैसे तबस्सुम की पर्दा-दारी भला बढ़ा जो ज़ब्त हदों से तो ख़ुद खुलेंगे होंट रहेगा बज़्म पे कब तक सुकूत तारी भला चलो यहाँ से भी 'अंजुम' को बैठने देगी कहाँ सुकून से ये दिल की बे-क़रारी भला