चले थे हम कि सैर-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं कि इतने में अजल आ कर पुकारी याद करते हैं हुजूम-ए-आरज़ू से शहर-ए-दिल आबाद करते हैं हम अपनी ख़ाक अपने हाथ से बर्बाद करते हैं तरफ़-दारी न कर इंसाफ़ कर ऐ दावर-ए-महशर सज़ा दे इन बुतों को वर्ना हम फ़रियाद करते हैं कभी तो रंग लाएगा कभी तो गुल खिलाएगा हम अपना ख़ून सर्फ़-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं हमें तो कार-पर्दाज़ान-ए-क़ुदरत खेल समझे हैं कभी आबाद करते हैं कभी बर्बाद करते हैं किसी उम्मीद पर ज़िंदा रहूँ या घुट के मर जाऊँ वो क्या कहते हैं ऐ क़ासिद वो क्या इरशाद करते हैं 'हफ़ीज़' अपनी तबीअत पर मुझे ख़ुद रश्क आता है मिरे अशआर पर हज़रत हमेशा साद करते हैं