चली जो ख़ुद से कभी हो के बद-गुमान हवा बिखर के रह गई गलियों के दरमियान हवा अजब नहीं कि दिए से शिकस्त खा के भी चराग़-पा न हुई अब के बद-ज़बान हवा गुज़िश्ता रात की दहलीज़ पर सिसकते हुए सुना रही थी हवाओं को दास्तान हवा हवाएँ बाँध रहा था जो एक मुद्दत से फिर एक रोज़ वही हो गया मकान हवा न जाने धारे किसी वक़्त रूप आँधी का निशान छोड़ न जाए ये बे-निशान हवा अब ऐसा लगता है साहिल से आ लगेंगे हम उड़ा के ले गई अपना तो बादबान हवा मुझे यक़ीन है एक रोज़ मेरे आँगन में बिखेर जाएगी ख़ुश्बू-ए-ज़ाफ़रान हवा