चमक कैसी रुख़-ए-अनवार में है ज़माना सारा ही असरार में है लगाएँ अपने फ़न-पारों की क़ीमत कि अब हर चीज़ ही बाज़ार में है कई आँखें गढ़ी जाती हैं मुझ में कोई रौज़न दर-ओ-दीवार में है रहा हूँ मुंतज़िर जिस का अज़ल से वही चेहरा मिरे अफ़्कार में है नहीं पहला सा अब रंग-ए-बहाराँ कि वीरानी गुल-ओ-गुलज़ार में है हदीस दिल बयाँ कैसे हो 'आसी' मुझे मुश्किल बहुत इज़हार में है