चमक-दमक पे न जाओ खरी नहीं कोई शय सिवाए शाख़-ए-तमन्ना हरी नहीं कोई शय दिल-ए-गुदाज़ ओ लब-ए-ख़ुश्क ओ चश्म-ए-तर के बग़ैर ये इल्म ओ फ़ज़्ल ये दानिश-वरी नहीं कोई शय तो फिर ये कशमकश-ए-दिल कहाँ से आई है जो दिल-गिरफ़्तगी ओ दिलबरी नहीं कोई शय अजब हैं वो रुख़ ओ गेसू कि सामने जिन के ये सुब्ह ओ शाम की जादूगरी नहीं कोई शय मलाल-ए-साया-ए-दीवार-ए-यार के आगे शब-ए-तरब तिरी नीलम-परी नहीं कोई शय जहान-ए-इश्क़ से हम सरसरी नहीं गुज़रे ये वो जहाँ है जहाँ सरसरी नहीं कोई शय तिरी नज़र की गुलाबी है शीशा-ए-दिल में कि हम ने और तो इस में भरी नहीं कोई शय