चमकते ख़्वाब मिलते हैं महकते प्यार मिलते हैं तुम्हारे शहर में कितने हसीं आज़ार मिलते हैं चले आते हैं चुपके से ख़यालों के मह ओ अंजुम मिरी तारीक रातों को बहुत ग़म-ख़्वार मिलते हैं दबे लहजा में ये कह कर नसीम-ए-जाँ-फ़ज़ा गुज़री चलो उन रेगज़ारों से परे गुलज़ार मिलते हैं ग़ज़ल को तजरबात-ए-ज़िंदगी की धूप में 'जामी' नए उस्लूब मिलते हैं नए मेयार मिलते हैं