चमके हैं सब के बख़्त तिरी जल्वा-गाह में वाँ कुछ नहीं तमीज़ सफ़ेद-ओ-सियाह में रहमत झलक रही है ग़ज़ब की निगाह में दिल पा रहा है लज़्ज़त-ए-ताअ'त गुनाह में हैं जब तुझी पे शैख़-ओ-बरहमन मिटे हुए फिर फ़र्क़ क्या है बुत-कदा-ओ-ख़ानक़ाह में पहले वही बहिश्त में जाए तो लुत्फ़ है सब्क़त हुई है जिस की तरफ़ से गुनाह में बंदे हूँ ताकि ख़िलअ'त-ए-रहमत के मुस्तहिक़ भर दी है कूट कूट के लज़्ज़त गुनाह में तासीर-ए-आह-ओ-नाला तो मा'लूम हाँ मगर दिल का बुख़ार ख़ूब निकलता है आह में 'मुश्ताक़' आए राह पे वो शोख़ या न आए अपनी तरफ़ से फ़र्क़ न आए निबाह में