चाँद निकले न कहीं यार पुराने निकले कोई कम्बख़्त मिरा दिल तो जलाने निकले ग़म-ए-नाज़ुक को तबस्सुम ने किया पर्दा-नशीं अश्क दुश्मन की तरह राज़ बताने निकले मैं तो बस सर्द हवा खाने को छत पर आया वो भी सूखे हुए कपड़ों को उठाने निकले उस का ग़म था कि मिरे दिल पे सुलैमाँ की मोहर अश्क निकले कि ये मोती के ख़ज़ाने निकले मुझ पे सहरा में भी इक संग किसी ने फेंका मेरे आगे तो ये मज्ज़ूब सियाने निकले दौर-ए-हाज़िर के सुख़न-साज़ हैं किस उजलत में सुब्ह दीवान कहा शाम छपाने निकले फिर से बेताब है उस चाँद का पारा पारा हाए वो चाँद तो उँगली को नचाने निकले मुश्क-ए-नेपाल ने आलम से मशाइख़ खींचे खोदी मिट्टी तो कई दफ़न ख़ज़ाने निकले तेरी गलियों का पता मुश्क से मालूम किया फिर उसी ओर कई बिगड़ी बनाने निकले